वर्ग स्तरीकरण विश्वव्यापी है, जिसमें व्यक्तियों के समूहों को उनकी प्रतिष्ठा, संपत्ति और शक्ति की मात्रा के सापेक्ष पदानुक्रम में, विभिन्न श्रेणियों में, उच्च से निम्न श्रेणियों में स्तरीकृत किया जाता है। 'टॉम वाटमोर' के अनुसार 'समाज में वर्ग का बँटवारा सत्ता और प्रतिष्ठा के आधार पर क्रमबद्ध स्वरूप किसी भी समाज का सार्वभौमिक कारण है।' जब समान लक्ष्य वाले लोगों का एक समूह बनता है जिनका हित आर्थिक दृष्टि से समान हो और श्रम विभाजन में समान भाव रखता हो तो वर्ग का उदय होता है। सामाजिक वर्गीकरण की व्यवस्था प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार से कार्य करती है जिससे उन समाजों की विशिष्ट परिस्थिति के संदर्भ में सामाजिक वर्ग, प्रजाति, जेंडर, जन्म एवं सभ्यता और संस्कृति के आधार पर अध्ययन किया जाता है। कार्ल मार्क्स ने वर्ग की व्याख्या आर्थिक संदर्भ में की है। उन्होंने वर्ग के दो भेद बताए हैं - (क) बुर्जुआ या पूँजीपति वर्ग (ख) मजदूर वर्ग। उन्होंने वर्ग का वर्णन उत्पादन के साधनों पर उनके अधिकार के संदर्भ में किया है। उनकी यह मान्यता थी कि उत्पादन के साधनों में परिवर्तन के साथ-साथ दो वर्ग बने रहते हैं - एक वर्ग तो वह होता है जिसका उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण होता है और दूसरा वह जो इसके स्वामित्व से वंचित रहता है। इस प्रकार धन की विभिन्न अवस्था धनी, मध्यम और निम्न वर्ग को जन्म देती है। फलस्वरूप शोषक और शोषित वर्ग की निर्मिति स्वाभाविक हो जाती है। औद्योगिक क्रांति ने जातीय अवधारणा से ऊपर उठकर शोषक और शोषित वर्ग को उभारा, पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीवादी सामंती प्रणाली के आभ्यांतर में अंकुरित और सामंती समाज के ध्वसांवशेषों से उत्पन्न हुआ। अपने विकास के साथ ही साथ इसने सामंती प्रणाली को भीतर से उपक्षारित करके नए, पूँजीवादी सामाजिक संबंधों के विकास के लिए जमीन तैयार की। सामंतवाद के भीतर पूँजीवादी तत्वों का प्रकट होना कोई संयोग नहीं था, क्योंकि सामंतवाद और पूँजीवाद इस मामले में एक-दूसरे के सदृश्य हैं कि दोनों ही उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व तथा मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित हैं।
हंसराज रहबर के कथा साहित्य में पूँजीवादी व्यवस्था का स्वरूप पूँजी के आद्य संचय के रूप में देखने को मिलता है। पूँजी का आद्य संचय वह ऐतिहासिक प्रक्रिया है जिसके दौरान छोटे उत्पादकों को उजरती मजदूरी में और उत्पादन के साधनों तथा द्रव्यीय संपदा को पूँजी में तब्दील किया जाता है। यह वह प्रक्रिया है जिसमें श्रमजीवियों के खिलाफ घोर और पैशाचिक बल प्रयोग, लूट, जालसाजी व धोखाधड़ी जैसी कुकृत्यों की विशिष्टता होती है। कार्ल मार्क्स ने एक उल्लेखनीय उपमा देते हुए लिखा है कि जब 'नवजात पूँजी संसार में आती है तब उसके सिर से पैर तक प्रत्येक छिद्र से रक्त और गंदगी बहती रहती है।'1
'हाथ में हाथ' उपन्यास के माध्यम से लेखक ने भारतीय जातीय और वर्गीय अवधारणा को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से जोड़ते हुए पूँजीवादी व्यवस्था के कुकृत्यों की विशिष्टताओं को उभारा है। लेखक ने भूतपूर्व रियासतों के जीवन और राजा की अय्याशी और गंभीरता तथा बहुविवाहों के फलस्वरूप असंख्य रानियों की मनोदशाओं का चित्रण किया है जो तत्कालीन समाज की पूँजी की आद्य संचय की उस ऐतिहासिकता से गुजरती हैं जहाँ अपनी प्रभुसत्ता और गंभीरता कायम रखने हेतु तरह-तरह के उपक्रमों का प्रयोग कर वर्ग-भेद की स्थिति कायम रखता है। धर्म की आड़ में उनका सामाजिक अस्तित्व और अस्मिता निर्धारित करता है साथ ही उनकी मनोदशाओं पर प्रहार करता है। लेखक स्पष्ट करता है कि जिस प्रकार पूँजीपति वर्ग के लिए पूँजीगत भौतिक साधन (यथा - सिनेमा, सर्कश, शतरंज और अय्याशी) उनका मनोरंजन करती है उसी प्रकार धर्म शोषित, मजदूर वर्ग का मनोविलास है। कार्ल मार्क्स ने भी स्पष्ट किया है 'धर्म दीन प्राणियों का विलाप है, बेरहम दुनिया का हृदय है और निष्प्राण परिस्थितियों का प्राण है। यह लोगों की अफीम है।' पूँजीवादी जगत में हर चीज मकानात और जमीन, छोटे-बड़े कारखाने, सम्मान और पद खुशियाँ, विवेक व अंतर्विवेक मानव शरीर तथा मानव आत्मा खरीदी और बेची जा सकती है। यह उपन्यास रहबर के ग्रामांचल से घनिष्ट संबंध को दर्शाता है। वे ग्रामीण चित्रों के यथार्थ स्वरूप में तनिक भी कमी नहीं होने देते। ऐसे ही एक चित्र में 'देहात के वासी कल्पनाप्रिय कम और यथार्थप्रिय अधिक होते हैं।' 2
समाज पर सदा से साधन संपन्न का आधिपत्य रहा है। 'रहबर' ने अपने उपन्यास की कथावस्तु से न केवल इस तथ्य की पुष्टि की है प्रत्युत्त 'जिसका पाप जितना छिपा हुआ है। वह उतना ही भला मानव है'3 कहकर समाज के तथाकथित भले मानव की कलई खोल दी है। इसके उपन्यास में साधन संपन्न द्वारा अपनी सामर्थ्य के 'मिसयूज' का लेखा-जोखा है। तथापि इसमें निर्धन वर्ग के प्रतिनिधित्व की बहुतायत तथा अपनी कमजोरी के एहसास का अभाव नहीं। स्वाभाविकता का इसमें विशेष महत्व है। रहबर का पात्र संवाद करता है कि आम आदमी की समस्या यह नहीं है कि राजा-महाराजा अपने धन का अपव्यय कैसे करते हैं? प्रत्युत यह है कि उनके शोषण से कैसे बचे? बूजूयैव के शब्दों में 'पूँजीवादी एक ऐसा मूलभूत अंतर्विरोध है जो सामाजिक प्रणाली के सारे आर्थिक एवं सामाजिक अंतर्विरोधों का निर्धारण करता है।'4
स्पष्ट है कि असमानता, भेदभाव, सामाजिक न्याय, भूख, गरीबी, वर्ग विरोध सामाजिक न्याय, भूख, गरीबी, वर्ग विरोध पूँजीवादी व्यवस्था के भीतरी अंतर्विरोध है जो लगातार बिगड़ती हुई आर्थिक और सामाजिक व्याधियों को जन्म देते हैं।
'संकल्प' उपन्यास में 'रहबर' ने निम्नमध्यवर्ग के नौकरी-पेशा शहरी लोगों की जिंदगी के संघर्ष की कहानी का यथार्थ चित्रण किया है। पुरुष के अत्याचारों के समक्ष नारी का युगों से आता हुआ समर्पण इसमें सजीव हो उठा है और एकाध नारी विद्रोह करती है तो किस प्रकार अन्य नारियाँ उसका सहयोग न देकर पुरुष के अत्याचारों की सहायक होती हैं, दर्शाया है। आंतरिक संघर्ष के रूप में 'कमलेश' और 'सावित्री' पात्र के भावोद्वेलन और वर्ग संघर्ष हेतु नारी और पुरुष के वर्गों तथा नूतन एवं पुरातन दो पीढ़ियों के संघर्ष का प्रतिफलन इस उपन्यास की विशिष्टता है।
बाल्यावस्था से जन्म, लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, रोजी-रोटी के लिए संघर्ष, छोटी-छोटी बातों पर घरेलू कलह, पुरुष का नारी पर रोब, वृद्धावस्था बीमारी और मृत्युपर्यंत व्यक्ति की संपूर्ण जीवन-लीला चित्रित करने में 'रहबर' ने एक कुशल चितेरे जैसा कौशल दिखाया है जो उसी के कलम से संभव है जिसमें अनुभव भी हो और अनुभूति भी। इस उपन्यास में 'रहबर' प्रेम के आदर्श को समक्ष रखते हुए यथार्थ से प्रतिबद्ध वर्ग-संघर्ष के हामी और शोषित के सहायक-समर्थक के रूप में उपस्थित है।
'उपहास' (कहानी संग्रह) में 15 कहानियाँ संकलित है, जिसमें लेखक ने पूँजीवादी व्यवस्था के जीवन से साक्षात किया है। स्त्री पुरुष के परस्पर प्यार (यह और वह, होनहार विरवा के...) दहेज के कारण अनमेल विवाह (बधाई), समाज के तथाकथित आदर्शवादियों की असलियत (गंदे), उच्च वर्ग के द्वारा निम्नवर्ग के शोषण के फलस्वरूप निम्न से निम्नतर हो जाना (हरकत) इत्यादि रोजाना की घटनाएँ इन कहानियों की आधारभूमि हैं। इस संग्रह में 'उपहास' शीर्षक वाली कोई कहानी न होते हुए भी संग्रह का नाम 'उपहास' इसमें आदर्शवाद और इसके अनुगामियों का उपहास होने से अपने आपमें सार्थक है। इन कहानियों में लेखक का विदेशियों के प्रति क्षोभ, परतंत्रता के जुए को उतार फेंकने की आतुरता और वर्ग संघर्ष को तूल देने का निश्चय स्पष्ट है। वस्तुतः संघर्ष चाहे आंतरिक रूप से हो या बाहरी इन कहानियों की जान है। आदि से अंत तक लेखक ने किसी-न-किसी रूप से संघर्ष को उजागर किया है। कही यह रूढ़ियों के खिलाफ है (ब्याह), तो कहीं ढोंग के (औरत, अर्थ, व्यर्थ), कहीं विदेशी सत्ता के (प्रतिध्वनि) तो कहीं देशी शोषण के (हरकत)। पूँजीवादी व्यवस्था के साम्राज्य के विकास को 'उपहास' का पात्र 'बल्लन' कहता है कि 'छोटे निजी कारोबार बड़े पूँजीवादी कारोबार को जन्म देते हैं।' साथ ही 'पूँजीवादी व्यवस्था में मेहनत और गुलामी की सीमाएँ परस्पर मिल जाती है।'
इस प्रकार रहबर की कहानियाँ पूँजीवादी व्यवस्था के स्वरूप का यथार्थ चित्रण करने के साथ विभिन्न पात्रों की मानवीय समस्याओं को प्रस्तुत करती हैं।
पूँजीपति वर्ग के साथ-साथ उसकी छाया है - मजदूर वर्ग। मजदूर अपने श्रम और हुनर को उत्पादन के साधन के साथ काम में लाते हैं और जरूरत की चीजों का उत्पादन करते हैं। मेहनतकश वर्ग, मजदूर से संबंध रखता है जो बिना काम किए जिंदा नहीं रह सकता। मजदूर अपनी श्रमशक्ति बेचता है जिसकी नींव पर पूँजीवादी व्यवस्था खड़ी है। हंसराज रहबर ने अपने उपन्यास 'मुखौटे' में मजदूरों की जीवन शैली को उजागर करते हुए लिखा है कि 'अगर आम आदमी सुख ही सुख चाहे और कुछ सहने की आदत न डाले तो सुख उसके जीवन का घुन बन जाता है।'5 स्पष्ट है कि समाज में एक व्यक्ति अपनी आजीविका चलाने के लिए गुलामी भरी जिंदगी जीता है वही दूसरी ओर पूँजीपति वर्ग ऐशोआराम से जीता है। हमारा समाज मानवीय संवेदना और श्रम की महत्ता से विमुख होकर पूँजी का गुलाम होता जा रहा है। कार्ल मार्क्स ने पूँजी के इस रूप को मृत श्रम कहा है, जो पिशाच की तरह केवल जीवित श्रमिकों का खून चूस कर जिंदा रहता है और जितना अधिक जिंदा रहता है उतना ही अधिक श्रमिकों को चूसता है।
हंसराज रहबर मानते हैं कि एक घंटे के दौरान एक आदमी उतना ही मूल्यवान है जितना कि एक घंटे के दौरान कोई और आदमी। अपने कथा साहित्य में रहबर पूँजीवाद में पूँजीपतियों के लिए संपत्ति का पहला स्थान और मानवता का दूसरा स्थान होने का यथार्थ चित्रण तो करते ही हैं साथ ही उन्हें राह भी दिखाते हैं। इसके पात्र इस हेतु संघर्ष करते नजर आते हैं। इनके कथा साहित्य (कहानी संग्रह - हमलोग (1954), झूठ की मुस्कान (1980), वर्षगाँठ (1987), नवक्षितिज, पथ-कुपथ (1993), नया उफक (1947), तथा 'अब और तब' (1957) में श्रमजीवी के दयनीय दशाओं का सामाजिक, राजनैतिक एवं औद्योगीकरण के आड़ में जूझते हुए देखा जा सकता है। उदारीकरण और प्राइवेटाइजेशन के इस दौर में मजदूरों पर चौतरफा हमले और उनकी बर्बादी का जीवंत चित्रण मिलता है। इन कहानी संग्रहों में मजदूरों की कथा ग्रामीण और शहरी दोनों हैं। इनकी कहानियाँ सचेत मजदूर संगठनों में मजदूर चेतना का प्रस्फुटन जागरण, आक्रोश तथा हिंसक प्रवृत्तियाँ दर्शाती है।
हंसराज रहबर का कथा संसार 1947 से 1995 तक बिखरी घटनाओं से संबद्ध होने के कारण स्वतंत्र्योत्तर भारतीय प्रगतिशील वैचारिकी की झलकियों के साथ तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था और संरचना के बृहत फलक को स्पष्ट करती है। रहबर अनेक कथा में समाज को सकारात्मक गति देने हेतु सुझाव शैली का प्रयोग करते नजर आते हैं जो उनके समाज के लिए उसकी व्यवस्था को गति देने में उसकी सक्रियता और बेचैनी को दर्शाती है। रहबर एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी विचारधारा के कथाशिल्पी हैं। उनके उपन्यास 'बिना रीढ़ का आदमी' की इस उक्ति से यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है कि 'जिस इनसान के दिल में एक बार मार्किसज्म का नूर दाखिल हो गया वह हमेशा क्रांतिकारी बना रहेगा और हमेशा मौलिक चिंतन करेगा।' 6 रहबर प्रतिबद्ध मार्क्सवादी होते हुए भी मानते हैं कि भारत में अभी मार्क्सवाद आया ही नहीं है, जो है वह खोखला है, हवाई है।' प्रगतिशीलता और संघर्ष के उनके अपने मायने हैं उनका मानना है कि प्रगतिशीलता और संघर्ष की पहली सीढ़ी व्यक्ति खुद है। और प्रगतिशील होने के लिए व्यक्ति का सबसे पहला संघर्ष खुद से होता है। हंसराज रहबर इस बात की जबरदस्त मिसाल हैं। वे देश और समाज की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप देश और समाज की वस्तुस्थितियों में होने वाले बदलावों की रोशनी में अपने देश और समाज की वस्तुगत सच्चाइयों को समझने और उन्हीं के अनुसार उनको बदलने की चेष्टा कथनी, करनी और लेखन से करते रहे तथा आजीवन संघर्षरत रहे। आलोचक मैनेजर पांडे के शब्दों में 'हंसराज रहबर को सबसे अधिक लगाव है संघर्ष से। वे जहाँ कहीं समझौता देखते हैं उस पर हमला करते हैं और जहाँ संघर्ष देखते हैं उसमें कूद पड़ते हैं। संघर्षशीलता उनकी पहचान बन गई है। उन्होंने जीवन में राजनीति में और साहित्य में पिछले वर्षों से लगातार संघर्ष ही किया है। अपनी आस्था के लिए, विचारों के लिए और रचनाओं के लिए। संघर्ष की राह पर चलने वालों की आमतौर पर जो हालत इस समाज व्यवस्था में होती है वही हंसराज रहबर की हुई है उन्हें जीवन, साहित्य और राजनीति में मिली हैं, मुसीबत, यातनाएँ असफलता, अपेक्षा और अस्वीकृति। सिद्धांतों की सीढ़ियों पर चढ़कर जो लोग सफलता के ऊँचे आसनों पर पहुँचे हैं वे रहबर को सनकी, झक्की और सिरफिरा आदि न कहेंगे तो क्या कहेंगे।" 7
निश्चय ही रहबर ने अपनी कलम से समकालीन चिंतन और व्यक्तियों को झकझोरा है। कभी-कभी जरूरत से ज्यादा ही झकझोर दिया है और अपने विरोधियों की संख्या बढ़ा ली है। उनके विचारों की उग्रता की आँच को बर्दाश्त करके उनसे सहमति के बिंदुओं पर ठहरना प्रायः मुश्किल होता है और उनकी स्पष्टवादिता असहमति के छोरों को मिलाने वाली समन्वयवादिता को छिन्न-भिन्न कर देती है। यही कारण है कि उनके वैचारिक लेखन से लोग आतंकित अधिक होते हैं और सहमत कम। आलोचक एवं दलित-चिंतक मुकेश मानस के शब्दों में 'लीक से हटकर सोचने और लिखने वालों को भुला देने या उपेक्षित कर देने का रोग हिंदी के साहित्यकारों, आलोचकों और संपादकों का बहुत पुराना रोग है। खास तौर पर हिंदी के मठाधीश प्रगतिशीलों, जनवादियों और क्रांतिकारी आलंबरदारों के भीतर यह रोग कुछ ज्यादा ही जड़ जमाए हुए है। साहित्य और संस्कृति के बारे में लोग जैसे बहुत सी बातें तय मानकर बैठ गए हैं। अगर इनमें थोड़े बहुत हेर-फेर की गुंजाइश है भी तो उसे पूरा करने का ठेका भी उन्हीं के पास है। कहने का मतलब ये है कि उनके पास एक लीक है जिससे अलग हटकर सोचने और लिखने की छूट किसी को नहीं है। जिस किसी ने भी यह छूट लेने की कोशिश की इस कदर उपेक्षित कर देते हैं कि उनका अता-पता न रह जाए। ऐसे ही अनेक महत्वपूर्ण और प्रगतिशील लोगों में से एक हैं - हंसराज रहबर।' 8
हंसराज रहबर बदलाव और संघर्ष की भारतीय चिंतन परंपरा के अद्वितीय योद्धा हैं और बहुत देर तक उनके विचारों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। जैसे-जैसे समाज में संघर्ष बढ़ेगा और व्यवस्था परिवर्तन के नए-नए विचारों का जन्म होगा, उनकी नींव के रूप में हम हंसराज रहबर से नए तरीके से रूबरू होंगे।' 9 इनका लेखन समाजशास्त्रीय-ऐतिहासिक बोध विकसित करता है जो मानव समाज के उद्भव विकास की परिकथा को हृदयंगम करते हुए विकास के वर्गों और व्यक्तियों की भूमिकाओं के साथ संघर्षशील मनुष्य और समाज की गाथा का विहंगावलोकन भी।
जब-जब जनता मुक्ति के लिए संघर्ष करेगी। तब-तब रहबर के लेखन, व्यक्तित्व एवं भूमिका का महत्व को बड़ी हसरत से याद करेगी।
गौरतलब है -
हमें भी याद रक्खें जब लिखें तारीख गुलशन की
कि हमने भी लुटाया है चमन में आशियाँ अपना।'
संदर्भ
1. मार्क्स पूँजी, खंड-1, 1867
2. हाथ में हाथ, नवयुग प्र.दि. 1950
3. वही, पृष्ठ 72
4. पूँजीवादी क्या है? प्रगति प्रकाशन मास्को, 1683
5. मुखौटे नवयुग प्र.दि. 1947, पृष्ठ 64
6. बिना रीढ़ का आदमी, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 1977, पृष्ठ 109
7. त्रैमासिक पत्रिका, विषय वस्तु, अप्रैल-जून, 1983, पृष्ठ 14-15
8. मगहर, फरवरी, 2014, पृष्ठ 4
9. वही, पृष्ठ 6